अजनबी अपने ही घर में

विषय- “अजनबी अपने ही घर में ”

चेहरे पे नक़ाब की चादर लिपटी हैं,
जब आईने में नजर खुद से मिलती हैं,
बिन कहे पलकों से बारिश गिरती हैं,
कोई देख न ले…इसलिए अधरों पे मुस्कान होती हैं।

यूँ तो चारों ओर से घिरी हुई हूँ,
अपनो की इस भिड़ में फिर भी अकेली हूँ…
अपने ही ख्यालों में अक्सर खो जाती हूँ,
कुछ समझ न आये तो बस मौन हो जाती हूँ।

ऐसा नहीं की मेरे अपनो से बनती नहीं,
या मैं उनको समझतीं नहीं…
पर कुछ एहसास ऐसे है,
जो वो समझते नहीं।

कभी- कभी ऐसा लगता है,
सब कुछ होकर भी कुछ नहीं होता है
एक अजनबी सी हूँ अपने ही घर में…
पर इससे किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता हैं।

हर दिन ख़ुद से एक नई जंग लड़ती हूँ,
मुस्कुराहठों के पीछे कितने दर्द समेटे हूँ,
कभी- कभी अपने ही सोच से डर जाती हूँ,
आईने में बस ख़ुद को तकती रह जाती हूँ।

न दिखावे की आदत, न झूठ की चाल है मेरी,
दुनियादारी की समझ से परे हूँ,
अपनी ही धुन में रहती…
सादगी ही पहचान है मेरी।

✍️स्वीटी मेहता
प्रतियोगिता- बोलती कलम
क्वालीफायींग राउंड
अल्फाज- ए- सुकून

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