*अजनबी अपने ही घर में*
जब तक जेब में पैसा रहा,
मैं घर की शान हुआ करता था।
आज हालात क्या बदल गए,
अपने ही अजनबी में बदल गए।
लोगों की आवाज़ बहुत काटती है,
बददुआएँ भी साथ चलती हैं।
फिर भी चुप हूँ, अपने काम में,
शामिल हूँ ख़ुद इस अंजाम में।
दर्द है दिल में, पर कौन सुनेगा?
बेरोज़गार को अपना कौन कहेगा?
जानते हैं सभी , ये सफल नहीं,
ये आज़ तो है, पर होगा कल नहीं।
ख़ैर, अजनबी अपने ही घर में हूँ,
क्या फ़र्क पड़ता कि पटना शहर में हूँ।
ग़ैरों से ज़्यादा अपनों ने दर्द दिया,
मैंने कब अपनी ज़िंदगी जिया?
घर की खातिर ज़िम्मेदारियाँ हैं,
शायद इसलिए दोस्तों से दूरियाँ हैं।
पर ये बात घरवाले नहीं मानते,
बड़ा बेटा होने का दुःख नहीं जानते।
बदल जाएगा हालात, फिर मैं भी,
अपनी कहानी का राजा बनूँगा।
ना ज़रूरत होगी किसी और रौशनी की,
मैं ख़ुद की ही बेशक आभा बनूँगा।
जेब में पैसा होगा, अपनों का प्यार होगा,
घर में ही पूरा एक संसार होगा।
फिर कौन होगा मुझसे आगे बताओ,
रोज़ नए-नए लोगों का दीदार होगा।
मज़बूत होंगे क़दम एक दिन,
यक़ीन है इस बात पर पुरज़ोर।
शांत हूँ मैं इस क़दर अभी तो क्या,
मैं रहा हूँ कभी बहुत चितचोर।
पुराने दिनों को याद कर मैं,
अब वर्तमान को बना रहा हूँ।
शाह के मन में क्या है कब से,
अब सबको ही बता रहा हूँ।
©® प्रशांत कुमार शाह
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