अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी
(चिड़िया की व्यथा)
पेड़ों की शाखें अब कहां बची हैं,
हर दिशा में इमारतें ही खड़ी हैं।
जिस डाल पर बैठ गुनगुनाती थी,
आज वहाँ मशीनें शोर मचाती हैं।
नीड़ उसका सपना बन गया,
वो कोना भी अब छिन गया।
शिकारी छुपकर आते हैं,
जालों में सपने फँसाते हैं।
ना बारिश की बूँदों से खेलना,
ना सुबह की किरणों में झूलना।
डरी-सहमी सी उड़ती है अब,
खुले आसमान से भी डरती है अब।
धरती जिसे मां कहती थी,
अब उसी से दूर बहकती है।
— ऋषभ तिवारी (लब्ज़ के दो शब्द)