कलम की धार, तलवार से तेज होती है,
नतमस्तक दुनियां,आवाज गूँज उठती है…
इंकलाब की लौ जला,पर्दाफास करती है,
चुप रहती है और फिर कत्लेआम करती है…
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कलम गुलाम नहीं, ये तो स्वछंद चलती है,
प्रेम रस, विरह रस, कभी विद्रोह करती है…
प्रजातंत्र में जान फुक,उसे सशक्त करती है,
कलम जबाब मांगती, ये सवाल करती है…
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धर्म-जाति नही देखती, इंसान दखती है,
इंसानियत की पक्षधर,ये क्रन्ति लगती है…
अवाम-ए हुकूमत से रोज़ सवाल पूछती है,
चाटुकारिता नही, ये बस सच बोलती है…
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गरीब-अमीर दोनों को समान तौलती है,
साफ बोलती,सच का कारोबार करती है…
कलम की धार, तलवार से तेज होती है,
सत्यमेव जयते का ही सरोकार करती है…
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कलम जूनून लिखती है, आग फूँकती है,
सोया जमींर जगा, नया सृजन करती है…
हर युग में क़लम ही सही राह दिखाती है ,
कलम स्याही ना,कलमकार-ए ख़ू मांगती है….
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कलम ही सत्ता का लेखा-जोखा करती है,
कबीर क़लम आम है,पर ख़ास करती है…
जुल्म से लड़ती,और सही इंसाफ करती है,
तलवार से कही गहरा,कलम वार करती है…