कलम बनाम तलवार
तलवार कहती है –
मैं लहू से इतिहास लिखती हूँ,
मेरे वार से साम्राज्य झुकते हैं,
सत्ता मेरे साये में पलती है,
मेरी धार से डरकर ही राजनैतिक सच मुखर होते हैं।
कलम मुस्कुराकर कहती है –
तेरे वार से सिर झुक सकते हैं, दिल नहीं…
मैं जख़्म नहीं देती, बल्कि मरहम बनती हूँ,
मैं लहू नहीं बहाती, मगर पीढ़ियों की सोच बदल देती हूँ।
तलवार गरजती है –
तेरे शब्दों से भूख नहीं मिटती,
तेरे अक्षरों से सीमाएँ सुरक्षित नहीं होतीं,
तेरी नज़ाकत युद्धभूमि में किसी काम की नहीं!”
कलम धीरे से उत्तर देती है –
युद्धभूमि तलवार से जीती जा सकती है,
पर शांति सिर्फ शब्दों से लिखी जाती है।
तेरे वार से डर पैदा होता है,
मगर मेरे अक्षरों से इंसानियत ज़िंदा रहती है।
तलवार चुप हो जाती है –
क्योंकि उसे भी मालूम है,
उसकी जीत अस्थायी है,
और कलम की हार कभी स्थायी नहीं।
कलम के शब्द घावों पर मरहम रखते हैं,
तलवार के वार बस लाशें छोड़ जाते हैं।
तलवार से राज मिल सकता है,
पर कलम से इज़्ज़त और अमरता मिलती है,
और इंसान आखिरकार उसी को याद रखता है जिसने दिल जीता हो।
— ऋषभ तिवारी (लब्ज़ के दो शब्द)