प्रतियोगिता – काव्य के आदर्श
विषय – ख़्वाहिशें
रचयिता – सुनील मौर्य
प्रेरणा – मुंशी प्रेमचंद जी
प्रयास – भाषा में गाँव की बोली का उपयोग
प्रस्तावना: गाँव की धूल, चूल्हे की आँच, और सपनों की महक —यहीं से जन्म लेती हैं, सच्ची ख़्वाहिशें..
चरण – फाइनल
ख़्वाहिशें: मिट्टी में पलते, सपनों की कहानी..
फटे कपड़ों में भी, त्योहार सजावै की चाह बनी,
सूखी रोटियों में भी, मेहमान खिलावै की सोच रही।
धूप से झुलसे तन का, ठंडी बयार में जी ललचावै,
बरसात में टपकते छप्पर को, अब नया बनवावै।
कभी किताबन में अक्षर बुनै का, मन में इरादा धरयो,
पर हल की मूठ पकड़, खेत जोतन में जीवन भरयो।
जाड़े की रात में ऊनी कपड़े की, आस भीतर जलती,
पर आधी चादर तान, देंह गठरी बन सिमट चलती।
भूखे पेट भी चूल्हा सुलगावै का, हौसला वो थामे रहे,
अपने हिस्से का कौर, किसी और के मुँह लगावे रहे।
हर आँगन में बच्चन की किलकारी, सुनै की चाह रही,
पर सूनी दीवारन में बस, अब सन्नाटन की आह रही।
ख़्वाहिशें तो आसमान छू लै की, मन में परवाज भरतीं,
पर गाँव की मिट्टी, उसके पाँव जकड़ के, नीचे धरतीं।
यही नन्ही-नन्ही ख़्वाहिशें, जीने के सहारा बनत हैं,
नै त साँसें भी सबकी, इस मिट्टी मा गुम हो जात हैं..
सुनील मौर्य