प्रतियोगिता – शब्दों की अमृतवाणी
शीर्षक – खोया बचपन ,मिला समाज
बहुत याद आतीं हैं वो पेड़ों की डाली ,
जिसने बचपन की यादें अभी तक संभाली,
वो ठंडी सी कुल्फ़ी , वो मटके का पानी ,
वो रातों को चलती थी माँ की कहानी,
ना टीवी ना फिल्में ,ना मोबाइल थे हाथ में,
मग़र एक ही घर में सब रहते थे साथ में ,
उन छोटे घरों की तब , बड़ी थी कहानी ,
और कच्ची छतों पर, हम छिड़कते थे पानी ,
वो गुल्ली वो डंडा , वो रँगीन गोली,
जो रखे हैं दिल मे , बनाकर रंगोली ,
नानी से करते थे जमकर ठिठोली ,
नाना को भाती थी वो तुतली सी बोली,
अब सोचतें हैं क्यों आई ये बेक़स जवानी,
कोई लौटा दे बचपन की वो जिंदगी सुहानी ,
शैतानियों के, वो चुलबुल से किस्से ,
जिन्हे खो के आए , हम आफत के हिस्से,
हर शाम जमती थी, खुशियों की महफिल,
मस्ती में रहता था , सराबोर हर दिल ,
तारो को गिनते गुजरती थी रातें ,
वो दादी के किस्से, वो नानी की बातें ,
रबर का पहिया भी था विमान सरीखा,
और फिरकी बनाना , था नानी से सीखा,
पापा की साइकिल पे देखा जमाना ,
मम्मी से सीखा था , हर रिश्ता निभाना ,
अब ना वो सोंधी मिट्टी ना महक है ,
ना दिन निकले वो चिड़ियों की चहक है,
ना वो रिश्ते और ना कोई रिवाज है,
जो आज हममें जिंदा है,वो एक दोगला समाज है।।
-पूनम आत्रेय
प्रथम चरण