ख्वाहिशें

ख्वाहिशें

कभी मिट्टी में खुशबू टटोलने की ख्वाहिश थी,
कभी माँ के आँचल में छुप जाने की ख्वाहिश थी।

कभी किताबों के पन्नों में खो जाने का मन था,
कभी प्रेमचंद के गाँव में जीने का सपना बना था।

कभी शब्दों से ही भूख मिटाने का इरादा था,
कभी आँसू को कविता में बदलने का वादा था।

कभी चाहा—दर्द भी मेरी मुस्कान पहन ले,
कभी चाहा—अंधेरा भी मेरी रोशनी सहन ले।

कभी ख़्वाब था—हर दिल में इंसानियत बसाने का,
कभी जुनून था—नन्हे हाथों में कलम थमाने का।

कभी चाहा… कि लफ़्ज़ों से ज़ख़्म भी मरहम बन जाए,
कभी चाहा… कि हर कहानी से सच उजाला बन जाए।

आज बस एक ख्वाहिश बाकी रह गई—
कि मेरी हर पंक्ति में सच्चाई महकती रह गई।

कहें गार्गी—शब्दों में ढाल दी ख्वाहिश मुंशी प्रेमचंद की,
ताकि हर दिल में फिर से… उम्मीद नई जग सके उनकी।

©गार्गी गुप्ता
फाइनल राउंड

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