गाँव का बचपन और उसकी यादें
गाँव की पगडंडी पर मिट्टी से सने पाँव,
दादी की गोद में सुनाई देती रामायण की छाँव।
खेतों में दौड़ते हुए हँसी का जो रंग था,
वो अब शहर की गलियों में कहाँ ढूँढा गया संग था।
आम के पेड़ पर चढ़कर छुपा लेना खजाना,
बरसात में भीगकर मिट्टी के घरौंदे बनाना।
तालाब का ठंडा पानी, कच्ची दीवारों का सहारा,
वो बचपन था भाई, जो अब सपनों में ही दोबारा।
गर्मी की रातें भी कितनी सुहानी होती थीं,
छत पर सबके संग एक टोली सी सोती थी।
माँ-बाप लकड़ी के पंखे से हवा किया करते,
हम चंदा मामा और तारों में कहानियाँ ढूँढा करते।
सितारों की चमक में छुपे सपने सँजोते थे,
पर उनकी कहानियों में भी कभी-कभी खोटे थे।
फिर भी वो रातें थीं सबसे प्यारी निशानी,
अब कहाँ मिलती है वैसी अपनापन की कहानी।
जवानी आई तो शहर की चमक-दमक ने घेरा,
पर मन अब भी गाँव की चौपाल पर ही ठहरा।
यहाँ भीड़ बहुत है, मगर अपनापन नहीं,
गाँव की मिट्टी जैसी खुशबू अब कहीं।
आज भी आँखें बंद करूँ तो वही नज़ारे आते हैं,
गायों की घंटियाँ, भोर के गीत सुनाई देते हैं।
वो गुड़ की मिठास, माँ का हाथों का खाना,
ये शहर की रौशनी कभी न दिल को बहलाना।
कभी-कभी सोचता हूँ लौट जाऊँ उसी राहों पर,
जहाँ चाँदनी रातों में दोस्तों संग सोया था खेतों पर।
वो मासूमियत, वो हँसी अब कहाँ से लाऊँ,
जवानी में खड़ा होकर बचपन को फिर गले लगाऊँ।
— ऋषभ तिवारी (लब्ज़ के दो शब्द)