*गांव का आसमान*
बहुत कुछ अलग है, ये सब जानते हैं,
गांव को हम आज भी सभ्यता मानते हैं।
बहुत आगे है शहर, तो क्या शांति नहीं,
हर चीज़ वहां यूं भी आसानी से मिलती नहीं।
गांव का आसमान सदा निर्मल, साफ है,
बच्चों की गलतियों को यहां हर दिल माफ है।
शहर में कहां कोई गलती कर पाता है,
दाई की गोद में ही बच्चा पल पाता है।
यहां बैल की घंटी है, गाय का मधुर नाद है,
शहर तो आजकल बस हॉर्न से बर्बाद है।
गांव में खेत हैं, किसान है बाप-बेटा,
शहर की दौड़ में सबको पैसों ने लपेटा।
खुले आसमान में गांव के कितने तारें हैं,
शहर में धुंआ, प्रदूषण के गुब्बारे हैं।
कुछ गमलों संग शहर बड़ा प्रसन्न है,
गर इतना ही काफी है, तो ये झूठा जश्न है।
सूरज की पहली किरण, चांद का दीदार,
बुजुर्गों का आशीष, मां-बाप का प्यार।
ये सब शहर में अब कहां मिल पाते हैं,
गांव ही शहर के पेट को रोज पालते हैं।
वो साइकिल के लिए बच्चों का रोना,
टायर के खेल में खुद को ही खोना।
ये सब गांव की सुंदरता है सच मानो,
शहरवालों, ये जानकर खुद को पहचानो।
माना ग्रामीण और शहरी में भेद है,
परंपराओं संग यहां मतभेद भी खेद है।
तो क्या कोई गांव को भुला सकेगा?
गांव था, गांव है, कौन इसे हटा सकेगा?
दादी की लोरियां, संग चंदा मामा,
खेलते बच्चों पर चमकता घामा।
यही है मानसिक विकास का आधार,
ग्रामीण जीवन को मिले सबसे ज्यादा प्यार।
खैर, जो कहना था कह दिया,फैसला आपका,
गांव नहीं पराया, ये है सदियों से सबका।
“शाह” जानता है दादा-दादी का प्यार,
इसीलिए परिवार को मानता है संसार।
_*प्रशांत कुमार शाह*
पटना बिहार
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