*गांव का वो बचपन*…
कच्ची पगडंडियों पर दौड़ता नन्हा सा मेरा साया था
मिट्टी की सोंधी खुशबू में बचपन हर पल नहाया था..
खेतों की मेडो पर चुपके से सपनों का रेल चलता
हल्की हवा में सरसर करता गेहूं का हर एक बाला झुलता
खलिहान में उठती थी जैसे खुशियों की लहर पुरानी
बगिया में गति कोयल बोली बनकर मीठी कहानी
छत की मुंडेर पर लेट गिनते जब-जब तारे हजार
चांद बन जाता साथी अपना चमकाता मन अपार ….
गुड्डे गुड़ियों की दुनिया और ओस भरी वो घास
हर मौसम में ढूंढते थे हम अपनापन खास…..
अब शहरों की भीड़ में मन जब भी घबराया है
आंखों में वही गांव पुराना फिर- फिर मुस्काया है ….
*अंतिम की दो पंक्तियां*।
कहां ढूंढे वो मासूम लम्हे, जो गांव की गलियों में खो गए।
दिल तो आज भी वही , बचपन वाले सपनों में सो गए।।
✍🏻Swati singh
*राउंड वन*