
ना कसूर हमारा है, ना दोष तुम्हारा है,
फिर क्यों दोनों के हाथों में, ये अलग-अलग झंडा लहराया है…
हम तो बस मोहब्बत के सौदागर थे,
किसी मज़हब की दीवार ने कब हमें रोक पाया है?
पर सियासत ने नफरत का सौदा किया,
मस्जिद-ओ-मंदिर के बीच फासला बढ़ा दिया…
वो ताश के पत्तों से खेलते रहे हमारे जज़्बातों से,
और हम बस खामोश रहे, इस बँटवारे की साजिश में।
ना राम जुदा हैं, ना रहमान बेगाने,
इनके नाम पर हम क्यों बनें दीवाने?
इबादत का रास्ता चाहे जो भी हो,
मक़सद तो एक है — ‘इंसान’ बन जाना।
‘नियाज़’ कहता है — चलो अब एक नई राह चुनें,
जहाँ नफरत के सौदागरों की दुकानें बंद हों,
जहाँ दिल फिर से एक साथ धड़कें,
और हर झंडा सिर्फ ‘इंसानियत’ का हो।
~नियाज़