कुछ इस क़दर खड़ा हूँ मैं,
कि खुशियाँ देने चला हूँ मैं,
कुछ नहीं मेरा अपना जग में,
बस, खुद में मस्त हूँ, दरख़्त हूँ।
जब तक ज़िंदा रहा, जीवन दिया,
अपनी पत्तियों के साथ, उपवन दिया,
काट ही दोगे तो क्या कहूंगा ख़ुद से,
बस इतना कि पस्त हूँ, दरख़्त हूँ।
ना धूप से डर, ना आंधी का भय,
ना बाढ़ से डर, ना और डराए प्रलय,
चुपचाप हूँ खड़ा मैं, एक किनारे,
गरचे बहुत सख़्त हूँ, दरख़्त हूँ।
जीवन का संचार, और प्यार हूँ मैं,
श्मशान के लिए आधार हूँ मैं,
सुहागन की डोली की खातिर,
एक ज़रूरी तख़्त हूँ, दरख़्त हूँ।
देखकर अपना सब कुछ, यारों,
दुनिया के लिए बस रख़्त हूँ,
ना एहसान का कभी ज़िक्र किया,
इसलिए सर्वत्र हूँ, दरख़्त हूँ।
ख़ैर, खुद की बात कितना लिखूं,
बस इतना कि शून्य से शुरुआत किया,
तमाम बाधाओं से मुलाक़ात किया,
शायद, इसलिए बंदोबस्त हूँ, दरख़्त हूँ।
प्रशांत कुमार शाह
एक कमाल की रचना बधाई हो भाई इतनी उत्कृष्ठ रचना के लिए आपको