दरख्त

कितने स्वार्थी और मतलबी हैं ये मानव,
दो गज जमीन के लिए अपनों से भी लड़ जाते हैं।
वो भला मेरी पीड़ा क्या समझेंगे,
जो निजस्वार्थ के लिए हमें नष्ट कर जाते हैं।

कभी मेरी छाँव में बैठ अपनी थकान मिटाते थे,
वहीं आज घरों में कूलर-पंखा चला, बड़े ठाठ से रहते हैं।
हो रहा अत्याचार खुलेआम मुझ पर,
ये देख — सब बेजुबां बन बैठे हैं।

ऊपर से कहते है प्रदूषण कितना बढ़ गया है,
खुले में सांस लेना अब दुश्वार हो गया है
ऐसा हो भी क्यों न,
तुम मानव ने जो मेरा साथ छोड़ दिया है,

यूँ जो हमें काटते चले जा रहे हो,
हम दरख़्तों को बस लकड़ी समझ रहे हो।
पर एक बात गांठ बाँध लो—
हमसे तुम हो, तुमसे हम नहीं!

वक़्त अब भी है, चेत जाओ,
प्रकृति से रिश्ता मत तोड़ जाओ।
आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ तो बचा लो,
हरियाली का ये उपहार यूँ ही मत गँवा दो।

✍️स्वीटी मेहता
धन्यवाद 🙏🙂

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