“न्यूज़ एंकर बनाम न्यूज़”
कभी अख़बार की सुर्खियों में सच्चाई सांस लेती थी,
कभी न्यूज़ चैनल लोगों की आवाज़ बनते थे।
आज वो आवाज़ें बिक चुकी हैं,
अब खबरों की जगह ड्रामा और हंगामा परोसा जाता है।
जो मुद्दे खेतों की मिट्टी और किसानों की मेहनत से उठते थे,
अब वो स्टूडियो की गर्म रोशनी में खो गए हैं।
जो एंकर कभी जनता के सवाल पूछते थे,
अब वो सिर्फ सत्ता के सवालों के जवाब पढ़ते हैं।
खबरें जो कभी आशा और बदलाव का रास्ता दिखाती थीं,
आज वो चीख-चीखकर टीआरपी का खेल खेल रही हैं।
खबरें अब इंसानों के दर्द को नहीं सुनतीं,
वो बस कैमरे के सामने रोने और हंसने का अभिनय करती हैं।
कभी एक रिपोर्ट में गाँव का दर्द लिखा जाता था,
आज शहर के मॉल और फिल्मी गॉसिप ही खबर बन गए हैं।
कभी एक एंकर सच बोलने पर गर्व करता था,
अब वो ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ की चमक में अपना सच बेच चुका है।
खबरें अब सवाल नहीं पूछतीं,
सिर्फ आरोपों की आग भड़काती हैं।
जहाँ पहले न्यूज़ सच की मशाल थी,
वहाँ आज झूठ का तमाशा जलता है।
कभी ‘न्यूज़’ मतलब था जनता की तकलीफ को सामने लाना,
आज मतलब है किसी की छवि गिराना या किसी का नाम बेचना।
सच की जगह ‘स्पॉन्सर्ड’ सच्चाई आती है,
हर शब्द अब सिर्फ रेटिंग का गुलाम है।
न्यूज़ एंकर के चेहरे पर जो गुस्सा दिखता है,
वो गुस्सा नहीं, कैमरे के सामने खेला गया अभिनय है।
जो चैनल कभी लोगों की आवाज़ थे,
आज वो बड़े घरानों और पैसों की जंजीरों में बंधे हैं।
ये वही मीडिया है, जो कभी आज़ादी का हथियार था,
अब वही मीडिया सच्चाई से मुंह मोड़ रहा है।
सवाल ये नहीं कि न्यूज़ झूठी क्यों है,
सवाल ये है कि हम ये झूठ सुनते क्यों हैं?
“खबरों का चेहरा अब सच्चाई से दूर है,
हर चैनल का मालिक बस टीआरपी में मजबूर है।”
— लब्ज़ के दो शब्द (ऋषभ तिवारी)