भीगी यादों के रंग
नीचे गिरे कुछ काग़ज़,
कुछ रंगों में डूबे हुए,
तो कुछ बारिश की बूँदों से भीगे —
जैसे कोई भूली-बिसरी डायरी,
जैसे किसी मासूम की अधूरी कविताएँ…
हर काग़ज़ का रंग,
कोई सपना है जो बचपन में पनपा,
किसी ने माँ के आँचल में छुप कर
नाव बनाकर पानी में बहाया था,
तो कोई चुपचाप ज़िंदगी की पहली चिट्ठी लिख रहा था…
कभी उन पर पापा के दस्तख़त थे —
पहली स्कूल की फ़ीस के वक़्त,
तो कभी उस बहन की राखी की बूँदें,
जो अब विदेश से वीडियो कॉल पर मिलती है।
बारिश की हर बूँद जब गिरती है,
तो ऐसा लगता है जैसे —
हर रिश्ता, हर लम्हा,
धीरे-धीरे पिघल रहा हो…
आज के दौर में भी,
ये भीगे हुए काग़ज़ —
सिर्फ़ तस्वीर नहीं हैं,
बल्कि समाज की एक सच्चाई हैं —
जहाँ सपनों की क़ीमत पूछी जाती है,
पर उन्हें बचाने के लिए कोई छत नहीं मिलती।
इन रंगों में कुछ माँओं की ममता घुली है,
जो खुद भीगती हैं पर बच्चों को सूखा रखती हैं,
कुछ बूँदें उन बापों के माथे से फिसलती हैं,
जो अपने आँसू छुपाकर छाते बन जाते हैं।
इन काग़ज़ों पर शायद कोई कविता नहीं लिखी गई,
पर अगर ध्यान से देखो —
तो ये आँसुओं से भीगी आत्मकथाएँ हैं,
जिन्हें किसी ने पढ़ा नहीं..
पर सबने जीया है।
जहाँ हर काग़ज़ एक बीता पल है,
और हर बूँद — वो एहसास जो कहा नहीं गया।
“काग़ज़ भी भीगते हैं, जब जज़्बात स्याही बन जाए,
बूँदें भी चुप हो जाती हैं, जब बचपन याद आए।
वो रंग जो पानी में घुलते रहे हर साल,
किस्सों में सिमटी ज़िन्दगी, अब तस्वीरों में ढल जाए…”
लेखक नाम — ऋषभ तिवारी
पेन नाम — लब्ज़ के दो शब्द (फाइनल राउंड)