भीड़ में रहकर अकेले हैं

प्रतियोगिता – तंज की ताकत
विषय – भीड़ में रहकर अकेले हैं

भीड़ के सिंधु में डूबा मनुज, फिर भी सूखे तट सा अकेला है,
रंग-बिरंगी जगमगाहटों में, नीरवता का कड़वा रेला है,

मिलते हैं कितने अपने , पर कोई नहीं अपना होता,
हर अनसुलझी मुस्कान के पीछे , एक टूटा सपना होता ,

विनम्रता की ओट में भी, जाने कितना स्वार्थ झलकता है,
मुख पर मीठी वाणी है, पर हिय में क्लेश पनपता है,

सकारात्मक वचनों के पीछे , विषाद का फैला है विस्तार ,
अंतःकरण में घोर उदासी, आनंद का हो रहा शिकार ,

रिश्तों के मन संवाद पर, है आत्मीयता का सर्वथा अभाव,
संयोगों के इस मेले में, बस अपनत्व का लगा है दाव ,

मोबाइल ने बाँध दिए संबंध, अब एकाकीपन भाता है,
सब रिश्ते जिसकी भेंट चढ़े , उस तकनीक से गहरा नाता है,

कंधे से कंधा मिलकर भी, हैं फासले बरक़रार यहां,
चाहे भीड़ में चेहरे मिले हज़ार, पर अपनापन है लाचार यहां ,

रोशन से बाज़ार में भी , दिल बुझा बुझा सा लगता है,
इस दौड़ में सब कुछ छूट गया , पर सब रुका रुका सा लगता है,

हर दर्द में दिल के ज़ख्मों को , ख़ुद बंधानी पड़ती धीर है,
भीड़ ने रहकर भी सब अकेले हैं, ये आज की तस्वीर है,

शोक के सूखे दरिया में , अब डूब गया है हर अरमान ,
साया तो है साथ मगर , ख़ाली मन लगता है श्मशान ,

कलह कलह कर खुद में ही , एक शोर मचाया है दिल ने ,
कबसे कोई जलसा हुआ नहीं , नीरवता की इस महफिल में,

भीड़ की इस बस्ती में जब भी, आंखे नम हो जाती हैं,
अपनेपन के अन्वेषण में , रूह तन्हा खुद को पाती है,

बस शाम सवेरे एक प्रश्न , इस मन पर दस्तक देता है,
अब हार गए सारी खुशियां , एकाकीपन एक विजेता है,

जो ज़ख्म छुपे मुस्कानों में , वो आंखों में दिख जाते हैं,
इस जीवन के सारे सपने ,अब बिना मोल बिक जाते हैं,

कभी कभी मन कहता है, क्या भीड़ में खोना सही रहा ?
एकाकीपन की नगरी में , बिन आंसू रोना सही रहा ।।

पूनम आत्रेय
अंतिम चरण

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