*भीड़ में रहकर अकेले हैं*
( आज के समाज और संस्कार पर तंज़)
बदल गया दौर देखो अब एक पल में,
खूबसूरत लम्हे बीत गए गुज़रे कल में।
नानी और दादी का घर बहुत वीरान है,
बच्चे और युवा इंटरनेट के लिए कुर्बान हैं।
हाथों-हाथ मोबाइल फोन, कैसा मंजर है,
जानने वाले हैं बहुत, पर अपनों में अंतर है।
भीड़ है परिवार में, पर जायदाद के लिए,
कौन मिलता है, बताओ, जज़्बात के लिए?
ये भी क्या खूब विकास है इस दुनिया में,
लोग डूबते हैं रोज़ आंसुओं के दरिया में।
सब कुछ बदल गया इस कदर आसानी से,
लोग खुश होते हैं बस अपनों की कुर्बानी से।
किताबों में संयुक्त परिवार अभी ज़िंदा है,
पर बच्चों को जन्म देकर मां तो शर्मिंदा है।
अनाथालय के साथ-साथ वृद्धाश्रम क्यों?
बूढ़े मां-बाप को रखने में अब शर्म क्यों?
रैलियों में भीड़ पर ज़िंदगी में सब अकेले हैं,
दो-चार रिश्तेदार भी अब लगते झमेले हैं।
जेब में पैसा है, पर कोई तो अपना नहीं,
ख़ुद से बढ़कर अब लोगों का सपना नहीं।
जानते हैं सब एक-दूसरे को बहुत अच्छे से,
पुस्तैनी जमीनें भी पहचानते हैं पुराने नक्शे से।
शादी के कार्ड में ज़रूर अपने दिख जाते हैं,
पर प्रबंधन के समय खुद को अकेले पाते हैं।
यही है भीड़, जो दिखती है कुछ मौकों पर,
और रिश्तें पलते हैं आजकल तो धोखों पर।
हैरत है कि लोग अब अकेले रहना चाहते हैं,
डायनिंग टेबल पर रोज़ अकेले ही खाते हैं।
खैर, अकेलापन अब रीत है और तो प्रीत है,
तन्हाई लोगों का हमदर्द और तो संगीत है।
किसे सुनना है वो राग अब, बताओ प्यार का?
*अकेला चलो* यही सिद्धांत है बस संसार का।
बाप और बेटे में भी क्या खूब ही अनबन है,
भाई-भाई में बचपन से ही बस धन-धन है।
मां है बेबस, लाचार आजकल इस झंझट से,
इसलिए है बंटवारा घर में बहुत झटपट से।
पता नहीं लोग कब सच में अब अपने होंगे,
जब होगा परिवार साथ और हसीन सपने होंगे।
*शाह* है ज़िंदा अपनी परवरिश और संस्कार से,
दिल जीतता है रोज़ सबका अपने विचार से।
स्वरचित:
*प्रशांत कुमार शाह*
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