भीड़ मे रहकर अकेले हैं

विषय – ‘ भीड़ मे रहकर अकेले हैं ‘

हर ओर बस चेहरे पे चेहरा है,
कोई दिल से नहीं सबने मुखौटा पहना है,
कंधों की भीड़ मे कोई कंधा अपना नहीं,
सबके बीच रहकर भी कोई अपना नहीं है।

हर रिश्ते मे अब शर्ते जुड़ी है,
बिना मतलब के कोई साथ नहीं है,
जो आंखों मे झांकें और मन पढ़ सकें,
ऐसा कोई चेहरा अब दिखता नहीं है।

भीड़ के साथ चलना अब दस्तूर बन गया है,
जो अलग चला,उसपे जग हंसा है,
अपनेपन की भूख में हर कोई तड़पता है,
पर देने को प्यार, किसी के पास वक़्त कहां है?

अब ख्वाहिशें भी समझौते से चलती है,
और मुस्कान भी उधारी की लगती है,
यूँ,तो कहने को एक काफिला साथ चलता है,
पर यहां सब बस मतलब का यार निकलता है।

यहां सच्चाई कि क़ीमत अब रही कहां है,
दिखावे की चकाचौंध मे असलियत कहां है,
जो हां मे हां मिलाएं,बेशक वही अच्छा यहां है,
जो सच बोले,वो भीड़ मे दिखता अकेला है।

अब हर आवाज़ शोर लगती है,
ख़ामोशी में ही अपनी पहचान सजीव लगती है,
भीड़ में सब जैसे किरदार निभा रहे हों,
असल ज़िंदगी कहीं पीछे छूटती सी लगती है।

अब सवाल यह नहीं कि साथ कौन चलता है,
मुद्दतों से देख रहे हैं,हर कोई पल में बदलता है,
इस भीड़ में अब ख़ुद से मिलना भी मुश्किल है,
पर,कोई दिल से नहीं मिलता ये बड़ा खलता है।

बेशक,भीड़ में रहकर मेरी सबसे दूरी है,
बातें कम करती मैं,समझते मुझमें ऐटिट्यूड बहुत है,
मैं ना बनावटी,ना दिखावे मे कोई दिलचस्पी है,
मैं ‘सहर’ सबसे अलग,इसका मुझे ग़ुमान बहुत है।

ख़ैर,मैं शोर से नहीं,ख़ामोशी से जुड़ती हूं,
भीड़ में नहीं,अकेले में खिलती हूं,
मैं वो हूं जो सबके बीच होकर भी
अपने ही ख्यालों में गुम रहती हूं।

स्वरचित:
स्वीटी कुमारी ‘सहर’
(फ़ाइनल राउंड)

Updated: July 31, 2025 — 10:10 am

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