प्रतियोगिता: बोलती कलम (जहां हर शब्द बोलता है)
टॉपिक: मैं समय से शिकवा नहीं करती
मैं समय से शिकवा नहीं करती,
बस दिल के टुकड़े संभालती हूँ।
जिन राहों पे मुझे दर्द ही मिलता है,
उन रहो पर भी मुस्कुराती हूँ।
मेरे हर आंसू के पीछे एक दास्तान है,
चुप रहकर वो दास्तान में खुद को ही सुनाती हूँ।
शिकवा तो उनसे भी नहीं जिन्होंने मेरा ऐतेबार तोड़ा,
मलाल तो उनसे भी नहीं जिन्होंने मुझे इस हाल पर छोड़ा!
समय ने तो मदद की मेरी,
समय के साथ मेरे ज़ख्म भरते गए।
हम तो आगे बढ़ गए वक्त के साथ,
लोग तो वहीं रह गए जो हर पल मलाल करते गय।
वक्त की मार से उम्मीद चिकना चूर हो जाती थी,
राहों पे मिली खुशियां कही खो जाती थी।
रोती थी में दहाड़े मार कर,
पर एक वक्त के बाद चुप हो जाती थी।
मैं समय से शिकवा नहीं करती हु,
बस किसी की यादों में हर शाम सिसकती हु।
ये वो भी जिसने मेरा दिल चुराया,
ये वो है जिन्होंने मुझे चलना सिखाया।
ये वो नहीं जिसने रोने को कंधा दिया,
ये वो है जिन्होंने मुझे संभलना सिखाया।
समय ने उन्हें मुझसे जुड़ा कर दिया,
पर मैं समय से शिकवा नहीं करती।
बस माँ की ममता बहुत याद आती है।
हर दुआ में जो मेरा नाम लेती थी,
अब उनकी यादों में मेरी रात कट जाती है।
अब पापा की हँसी अधूरी लगती है,
जो मेरी छोटी जीत पे भी मुस्कुराते थे।
शायद खुद से ज्यादा वो किसी और को चाहते थे।
बहुत लम्हे गुज़र गए उन्हें मुस्कुराता देख कर,
में समय से शिकवा नहीं करती,
शायद समय सब ठीक कर दे।
गिर कर उठना, रो कर मुस्काना,
सब वक्त और अम्मी अब्बू की मोहब्बत ने सिखाया।
कुछ अनकही यादें थे वो, उनके साथ जो वक्त बिताया।
में क्यों समय से शिकवा करनी थी?
क्यों कुछ यादों के संग आहे भरनी थी?
जो मिल गया वो मुकद्दर जो खो गया वो नसीब था।
ये वक्त का खेल भी अजीब ओ गरीब था।
समय के साथ कुछ गवा दिया,
तो समय ने ही कुछ लौटा दिया।
अब जो है उसी में खुश रहना मुझे वक्त ने सिखा दिया।
© Sadia
राउंड वन
अल्फ़ाज़ ए सुकून