*मेरा बाप मजदूर है*
( इस कविता को इस तरह पढ़े कि मानो कोई चलचित्र आंखों के सामने हो !!)
कभी खींचता रिक्शा, तो कभी ठेला,
कभी जाता बाज़ार, कभी कोई मेला।
जेब में पैसे नहीं, फिर भी जीता है,
खून जलाकर पसीना रोज़ पीता है।
कभी बना वो कुली, कभी दरबारी,
पर हिम्मत देखो , नहीं बना भिखारी।
खुद्दार है मेरा बाप, हक़ से बात करता है,
पत्नी-बच्चों के लिए हर रोज़ मरता है।
कभी बेचा बालू, कभी ढोया सीमेंट,
कभी किया राजमजदूरी, कभी रंग-पेंट।
पर इस बात से उसको ज़रा भी लज्जा नहीं,
इरादे हैं पक्के, मकान अभी पक्का नहीं।
शाम वही रोज़ का, एक समान होता है,
दिहाड़ी मिलने के बाद वो घर आता है।
पर दर्द नहीं जताता, न कोई चुभन है,
देने को बच्चों के लिए उसके पास चुम्बन है।
बीबी को दी थी उसने पायल बहुत पहले,
आज उस पर पड़ गए रंग काले-फीके मेले।
ये देख बापू मेरा रोज़ नज़रें चुरा लेता है,
सबको तकिया देकर, बोरी पर वो सो जाता है।
ख़ैर, इन बातों का क्या , ये बात पुरानी है
जो पढ़ रहे हैं आप एक सच्ची कहानी है
बच्चे बड़े हुए, अब काम हैं करने लगे,
ठेले वाला बाप बाइक पर चलने लगे।
बेटों ने खरीदी अब कई बीघा ज़मीन,
ये देख पड़ोसी सब हो गए गमगीन।
एक-एक कर बेटों ने सबकुछ बदल दिया,
माँ-बाप को उन्होंने बेहतर पल दिया।
शुरुआत की फुटवियर से, फिर बने उस्ताद,
बड़े बेटे के पास है सोच और बड़ा दिमाग।
दिन-ब-दिन सारे बाज़ार पर छा गया,
मेहनत से दुख का हर पहाड़ खा गया।
अब बन रहा मकान, होगा जल्दी गृहभोज,
फिर शुरू होगा जीवन का उसका नया खोज।
जानता है वो , मेहनत से ही जीवन चलता है,
बाप ही है आधार, बेटा ये अच्छी तरह समझता है।
ये थी एक दास्तान, जिस पर कविता समर्पित है,
बाप की खातिर मेरी ज़िंदगी अब अर्पित है।
“शाह” है वो बेटा, जिसका पूरा समर्पण है,
बाप ही ज़िंदगी है ,ये ही सबसे सुंदर दर्पण है।
_प्रशांत कुमार शाह
पटना बिहार
सीरीज वन
फाइनल राउंड