विषय- मेहनत की परछाई
बढ़े पाँव कमाते रहे धूप में दिन भर,
पर उनको न मिला सुकून कभी उम्र भर।
बच्चों का पेट ज़िंदगी भर पालते रहे,
अंत में वही बच्चे वृद्धाश्रम छोड़ते रहे।
फल बेच- बेचकर सड़कों पर चलते रहे,
अपनों के सपनों के लिए खुद को भूलते रहे।
हाथ न रहे तो पैरों से चलते रहे,
ट्रैक्टर लेकर रोज़ी की राह पर निकलते रहे।
पैर से ट्रैक्टर चला पेट भरते रहे,
खेतों में अपना सबकुछ झोंकते रहे।
बूढ़ों की मदद, ग़रीबों को खाना देते रहे,
इंसानियत का धर्म सबको सिखाते रहे।
मेहनतकश मज़दूर घर सजाते रहे,
पैसा बस दूसरों के लिए कमाते रहे।
अपने लिए छत भी बड़ी मुश्किल से बनाते रहे,
आईने में फटे कपड़े ही निहारते रहे।
जब सूट-बूट वाले आईने चमकाते रहे,
तो सपनों को पूरा करने की ताक़त जोड़ते रहे।
एक अच्छा इंसान बनने की चाह खोजते रहे,
सारे कामों के बाद अपनी पहचान ढूंढते रहे।
खुद का अलग रूप गढ़कर चलते रहे,
बड़ा घर–पैसा पाकर भी खुद से सवाल करते रहे।
आख़िर सांसों की गिनती का किरदार निभाते रहे,
हम पैसा–पैसा करते रहे, और ज़िंदगी की सांसें जाती रहीं।
अंत में मन ही सच से रुबरु कराते रहे,
पर असल में खुद को ही तलाशते रहे।
© गार्गी गुप्ता