वो तोड़ती पत्थर

वो तोड़ती पत्थर

वो तोड़ती पत्थर — पर मन उसका न टूटा,
हर वार में छिपा था सपना अधूरे लम्हों का।

धूप की चादर ओढ़े, पसीने में भीगती रही,
ज़िंदगी के प्रश्नों को हथौड़े से सींचती रही।

न कोई प्रश्न पूछा उसने, न किसी से चाही दया,
बस चुपचाप सहती रही, सहनशीलता बन गया न्याय।

हथेलियों में छाले थे, मगर आँखों में उजास,
हर चोट में पलता रहा एक अनकहा इतिहास।

बिन शब्दों के उसने कविता रच डाली,
उसके श्रम में छिपी थी एक मौन दीवाली।

हर पत्थर में देखा उसने टूटा अरमान,
पर वो ख़ुद बनी रही एक नई पहचान।

सड़क किनारे नहीं, इतिहास के पन्नों में थी वो,
संघर्ष की हर रेखा में मौन सी लिखी थी वो।

न कोई माला, न ताज मिला उस श्रम की देवी को,
फिर भी रचती रही वो गीत अपनी रेत-सी ज़मीं को।

ना रोई, ना रुकी — बस चलती रही सदा,
क्योंकि उसे पता था — यही है जीवन की विधा।

“गार्गी” कहती है — वो ‘निराला’ की कल्पना नहीं,
वो हक़ीक़त थी, जो आज भी साँसों में कहीं बसी।

©गार्गी गुप्ता

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