वो तोड़ती पत्थर

वो तोड़ती पत्थर

धूप में तपता बदन, फिर भी छांव की उम्मीद लिए,
हर वार हथौड़े का, जैसे किस्मत से जंग किए।

कंधे से बंधा बच्चा, कभी हँसे, कभी रो दे,
माँ की आँखों में चमक हो, या थकावट का मोड़ ले।

ना शिकवा है, ना कोई आह,
उसके सपनों में बस है – बच्चों की राह।

टूटी चूड़ियाँ, फटी चुनरी, पर इरादे मजबूत हैं,
हर पत्थर के पीछे उसके संघर्ष के सबूत हैं।

वो माँ है, ज़िन्दगी से लड़ रही बेआवाज़,
अपने आँचल में छुपाए हज़ारों राज।

रोटियाँ गिनने से पहले वो बच्चों की भूख तौलती है,
कभी पेट भर न खा पाए, पर किताबें जरूर खोलती है।

नींद उसकी आँखों से कोसों दूर रही,
पर बच्चों के सपनों में वो सुकून से बसी रही।

हर सुबह उसकी कहानी दोहराई जाती है,
माँ की मेहनत चुपचाप, लेकिन कुछ कह जाती है।

जिन हाथों में होना था चूड़ी और काजल,
वहीं उठता है पत्थर, वहीं चलती है हल।

वो माँ जो मुस्कान भी उधार में जीती है,
हर आँसू को आँखों में चुपचाप सीती है।

—ऋषभ तिवारी (लब्ज़ के दो शब्द)

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