वो तोड़ती पत्थर

प्रतियोगिता – काव्य के आदर्श
विषय -वो तोड़ती पत्थर

वो तोड़ती पत्थर, धूप में तपती हुई,
हिय के छालों पर , संघर्ष को रखती हुई,

नयन नहीं रोते, मगर दिल ज़ार ज़ार रोता है,
हर चोट पे हथौड़े की, जैसे कोई सपना खोता है,

छाले हैं भरे हाथों में, मगर वो रुकती नहीं है,
जैसे हो जंग जीवन ये, मगर झुकती नहीं है,

साँझ ढले गोधूलि में , जब वह घर को जाती है,
सूनी थाली देख कर, अश्रु आंखों में भर लाती है ,

ना कोई चाहत है, आंखों में सपना कोई नहीं,
दो वक्त की रोटी के जुगाड में, रात भर सोई नहीं,

साड़ी है फटी हुई , पर इज्जत को संभालती ,
सूनी सी आंखों में वह ,कोई स्वप्न नहीं पालती,

बच्चे को गोद में लिए, चलती है मुस्काती हुई,
पीड़ा से भरी पीठ को, प्यार से सहलाती हुई ,

न कोई शिकायत है , न जीवन से कोई गिला,
जीवन को समझा है उसने ,संघर्षों का एक क़िला,

वो पत्थर नहीं है , वो स्वयं में एक इतिहास है,
पीड़ा और संघर्ष भरी,उसकी हर एक सांस है,

कभी पूछ लेना उससे, उन छाले भरे हाथों का हाल,
वह कहेगी भूख है, इस जग सबसे बड़ा सवाल।।

-पूनम आत्रेय
द्वितीय चरण

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