प्रतियोगिता : काव्य के आदर्श
विषय : वो तोड़ती पत्थर
जिम्मेदारीयाँ घर की उसने उठा रखी है,
वो तोड़ती पत्थर,दो निवाला कमाती है…
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हाथों में छाले,वो सारी रात कराहती है,
दो बच्चे हैं, बस उन्हें देख मुस्कुराती है…
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सूरज भोर करे,उससे पहले उठ जाती है,
चूल्हा-चौका,भगवान को सर झुकाती है…
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देखती है जब भूख से बिलखते बच्चों कों,
दरिद्रता हावी हो, मन ही मन रुलाती है…
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तस्वीरें देख,अकस्मात शिथिल हो जाती है,
भाग्य ने छिना सब,ह्रदय विरक्त हो जाती है..
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फिर वोही अगली सुबह खुद को बहलाती है,
शरीर चर-चर करता,समेट कर खुदको उठाती है…
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सूर्य है तमतमाता, रूप को यूँही झुलसाती है,
श्वेत रंग है,धीरे धीरे श्याम रंग डलती जाती है…
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दिन भर पाषाण तोड़,थक के चूर हो जाती है,
कांपते है हाथ उसके,जब वो रोटियां बनाती है…
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चूल्हे में यौवन जलता,यूँहि राख होती जाती है,
सजना सभरना भूल,हालातों से लड़ती जाती है…
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कबीर जिंदगी का मसला,हल करना पड़ता है,
हाल खराब हैं तो हैं ,पर बसर करना पड़ता है…