🪒 वो तोड़ती पत्थर🪒
धूप की मार सहती थी, फिर भी कभी न हारी,
छांव मिली नहीं जीवन में, पर उम्मीद थी सारी।
पत्थरों से भिड़ जाती थी, जैसे कोई जंग लड़ती,
हर चोट पे मुस्काती थी, जैसे खुद को परखती।
गोद में बच्चा भूखा था, पर रोटी नहीं थी पास,
आँखों में नींद नहीं थी, पेट में उठता हाहाकार।
कच्चे घर की भीगती छत, दीवारें भी काँपती थीं,
फिर भी उसकी साँसें, उम्मीदों से बातें करतीं थी।
धूल सनी थी चूड़ियाँ, पर उनमें रुनझुन बाकी,
पैरों में छाले थे लेकिन, चलती जाती थी राही।
न भाग्य से शिकायत थी, न जीवन में कोई लोभ,
हर सांस में मेहनत थी, हर पल था श्रम से मोह।
पत्थर तक ये पूछ उठे, “क्यों रोज़ हमें हैं तोड़े?”
वो कहती, “मैं नहीं तोड़ती, बस ख्वाब हैं थोड़े।”
हथौड़े की हर वार में, जैसे एक कविता बहती,
उसके पास शब्द कम थे, हाथों से कथा सुनाती।
होंठों पर न कोई गीत, फिर भी गीत बन जाती,
तपती ज़मीं पे चलकर भी, इक राग रचती जाती।
जिसे जग ने श्रमिक कहा, वो खुद को देवी माने,
गरीबी में भी श्रम से वह, हर दिन नई सुबह बुने।
✍️ सुनील मौर्य