*क़लम बनाम तलवार*
आज *सुनवाई मेरे क़लम* बनाम तलवार की होगी,
कहीं पर थोड़ी, कहीं पर *ज़्यादा धार तेज* इसमें होंगी।।
आप सभी को दिखाऊंगी!!
सफर यह मैंने कैसे तय किया था ?
*चौक से पेन्सिल* तक का सफ़र शुरू कुछ ऐसे हुआ:-
सिखा जब लिखा मैंने *पहली बार* पकड़ी चौक (बरता) लेकर अपने हाथ,
जिसने दिया मुझे हर दम *शब्दों* को लिखना का *ज्ञान*,
उससे मिला मुझे शब्दों को मुंह से जोड़ते रहने का *दान*..।।
जब *चौंक से लिखना और पढ़ना सीख* लिया,
मैंने उन शब्दों को *पहचान* कर याद रखना सीख लिया।।
*पेन्सिल से क़लम* तक का सफ़र शुरू कुछ ऐसे हुआ :-
*चौक* छोड़कर हाथों में पेन्सिल थाम लिया,
मैंने शब्दों को जब *पुर्ण रूप से पहचान* लिया।।
शब्द-शब्द जोड़कर जब मैंने अपना *नाम पेन्सिल* से लिखना सीख लिया,
जब मैंने पुर्ण रूप से शब्दों से *पंक्तियों को धागों* में पिरोना सिख लिया,
तब हुई थी मेरी पहचान *क़लम की स्याही* से।।
*क़लम से काव्य* बन ने तक का सफ़र शुरू कुछ ऐसे हुई :-
क़लम से पंक्तियों को *शब्दों और पंक्तियों* का श्रृंगार करना सिखा,
क़लम से *रचनाओं* का तोड़-मरोड़ करते हुए *भावनाओं को व्यक्त* करना सिखा..।।
भावनाओं को शब्दों में *कहानी रूप रचना* सिखा,
दुनिया के तानों में हमने *कविता रूप रचना* सिखा..।।
खुद को समुद्र का वह *कुंदन सा चमकता मौती* समझा,
तब जाकर यह *सुरभि* खुद को कविता का कलाकार समझा।।
*नूकिल सुई* से धागा पिरोना सिखा,
वही *चाकू* से कुछ काटना सिखा।।
*तलवार* से तो हमने सिर्फ़ अपनों का गला-कटते देखा,
*तलवार* से तो केवल लहूं बहाकर जीत हासिल करना देखा।।
*तलवार* से तो केवल *निर्जिव* की जान लेना देखा,
*तलवार* से तो केवल *अपराधियों* का गला काटना नहीं देखा…।।
अतः क़लम बनाम तलवार से यही सिख मिलती है,
जो जीवन का *सही निर्माण* कर सकती है ,
वह केवल और केवल एक मात्र *क़लम* है,
*क़लम* ही जिसने हर पल जीवन उजागर किया है ..।।
सुरभि लड्डा