*सखी, वो कह कर जाते*
(दो सखियों के बीच संवाद)
व्याह रचाया और फिर सखी, छोड़ दिया,
सुहाग ने ज़िंदगी को कैसा मोड़ दिया।
मैं तो नहीं रोकती, गर उनको जाना ही था,
वो ही एक थे जिनको अपना माना था।
क्या हुआ कि मैं आधुनिक नहीं हूँ बताओ,
क्या है मेरी सौत में? मुझे भी तो समझाओ
सात फेरों का वादा कुछ सालों में तोड़ दिया,
बाहरवाली क्या आई, मुझको ही छोड़ दिया।
रो भी नहीं सकती, ससुराल दुश्मन बन गई,
सास, ससुर को मेरी बातें चुभन सी लग गई
सखी, तुम ही उनको एक बार बुला लाओ!
जिसे सात जन्मों का प्यार कहा, दिखला जाओ ।
सेज दी सुहाग की, और एक संतान भी दी
प्यार किया सच्चा, समर्पण पूरे मन से दी
ये कैसा रीत है? जो मर्द को बांधे नहीं?
और मर्द, बीबी से सच्चा प्यार भी न बाँटे कहीं?
उम्र ही क्या है मेरी? तीस या इकतीस,
मैंने दी ज़िंदगी, और उन्होंने दिया विष
किससे कहूं ये बात, बस रोना आता है,
जीवन अब मौत की गोद में सोना चाहता है।
सखी, वो कह कर जाते तो बात कुछ और होती,
उनकी खुशी की खातिर मैं खुद ही झुक जाती
*”शाह”* है मेरा संबल, वही राह दिखाएगा,
बस वही है उम्मीद, वही उनको समझाएगा !!
स्वरचित:
*प्रशांत कुमार शाह*
सेमीफाइनल