सखी वो कह कर जाते…

सखी वो कह कर जाते…

सखी, वो कह कर जाते,
बस एक बार मुड़ कर मुस्कुरा ही जाते।
मैंने तो हर बार उन्हें अपनी खामोशी में पुकारा,
पर वो हर बार जैसे दूरियों में और खोते गए।

ना कोई अलविदा, ना कोई वजह बताई,
बस निगाहें झुकी और यादें रह गईं।
मैं वहीं बैठी थी — उसी देहरी पर,
जहाँ वो वादा करके गए थे लौट आने का।

सखी, तू ही बता —
क्या लौट आने का वादा इतना हल्का होता है?
क्या रिश्ता सिर्फ वक़्त का मोहताज होता है?
मैंने तो साँसों तक में उनकी परछाईं रखी थी,
पर वो मुझे शायद एक लम्हा ही समझते थे।

अब पत्ते भी नहीं खड़कते उस पुराने पीपल के नीचे,
जिसे हम दोनों ने मिलकर आशियाना कहा था।
उसमें भी अब बस सन्नाटा बोलता है,
जैसे किसी ने उसे भी अकेला छोड़ दिया हो।

मैंने हर चिट्ठी में खुद को थोड़ा-थोड़ा कम किया,
सोचा शायद मेरी खामोशी पढ़ पाओगे तुम।
पर अफ़सोस… तुमने पढ़ना ही छोड़ दिया मुझे।

सखी अब हर आहट डराने लगी है,
कहीं फिर कोई वादा टूट ना जाए।
मैं बस यही चाहती थी —
वो एक बार कहते… मैं जा रहा हूँ…

तो शायद,
ये इंतज़ार इतना बेरंग न होता,और ये प्रेम… इतना बोझिल न होता।

— ऋषभ तिवारी (लब्ज़ के दो शब्द)

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