सखी, वो कह कर जाते

प्रतियोगिता – काव्य के आदर्श
विषय – सखी, वो कह कर जाते
रचयिता – सुनील मौर्य
चरण – सेमी फाइनल

सखी, वो कह कर जाते
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सखी, वो कह कर जाते, लौटेंगे फिर सावन में,
सूनी आँखें हैं भर जातीं, यादों के उस बंधन में।

द्वार खुला था सारा दिन, राहों पर नयन टिकाये,
साँझ ढलने तक पिघला मन, आशाओं में सिमटे।

सखी, वचन थे मधुर अतिशय, जैसे गान वसंतों के,
अब, पवन सुनाती है, स्वर विरह-व्यथित अंतों के।

किससे कहूँ ये पीड़ा, किससे बाँटूँ मैं यह विरह,
रातें चुपचाप बीततीं हैं, आँसू बनकर निःश्वास।

चाँद की कोमल किरणें भी, लगती हैं अब फीकी,
क्योंकि उनकी आहट बिन, मेरी ज़िंदगी है अधूरी।

मन में बसी थी तस्वीर, मुस्कान उनकी प्यारी सी,
अब तो बस छाया है बची, धुंधली और लाचार सी।

खेतों में खड़ी फसल-सी, उनकी प्रतीक्षा करती,
हर आहट को सुनकर, उनकी छवि मन में भरती।

सखी, क्या वचन थे केवल, या सपनों के मेले,
जो बिखर गए यूँ ही, जैसे फूल गिरते हैं, ज़मी पे।

मैंने हर एक मौसम में, दीप जलाए थे चौखट पर,
फिर भी, वो न लौटे कभी, ना आए मेरे आँगन पर।

वो आते तो शायद फिर, रंग लौट आते जीवन में,
हँसी बिखर जाती फिर से, मेरे इस सूने आँगन में।

यदि लौट पुनः आएँगे, तो क्या मैं पहचान सकूँगी?
कहीं अश्रु के बहाव में, स्मृतियाँ तो न भूल जाऊँगी?

तथापि हृदय में आज भी, नाम उन्हीं का धड़क रहा है,
सखी, वो कह कर तो जाते, चित्त आज भी ऊन्ही को जोह रहा है…

सुनील मौर्य

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