हड़प्पा सभ्यता इतिहास कि एक मूक पुकार

“हड़प्पा सभ्यता – इतिहास की मूक पुकार”

मैं हड़प्पा हूँ…
हाँ, वही मिट्टी की दीवारों में बसी खामोशी,
वही सभ्यता जिसकी ईंटें अब भी इतिहास को चुपचाप कहती हैं।
मैं था जब न राजा थे, न सेनाएँ,
फिर भी हर गलियों में अनुशासन था,
हर मोड़ पर संस्कृति मुस्कुराती थी।

न कोई स्वर्ण सिंहासन,
न पत्थरों की मूर्तियाँ —
बस श्रम, समर्पण और समता की जीवंत परिभाषा था मैं।

मेरे घरों में बहती थीं नालियाँ —
जो स्वच्छता का पहला पाठ पढ़ाती थीं,
मेरे गोदामों में भरा अन्न,
हर जीवन के लिए समृद्धि की सौगंध बनता था।

किसी माँ के आँचल-सी मैं,
अपने बच्चों को सहेजता था —
कृषि, व्यापार, लिपि और गणना में
हर दिन नवप्रकाश खिला करता था।

मैंने देखा है —
कच्चे मिट्टी के खिलौनों में
बच्चों की मासूम हँसी,
और पत्थर पर उकेरे गए चिन्हों में
मानव की बौद्धिक ऊँचाई।

मैं वो लिपि हूँ जो पढ़ी नहीं जा सकी,
मैं वो भाव हूँ जो मिटाया नहीं जा सका।
मेरे सीने में अब भी दबी हैं
हज़ारों अधूरी कहानियाँ —
जो खुदाई की हर परत के साथ
रोशनी की ओर बढ़ना चाहती हैं।

हड़प्पा —
कोई काल्पनिक कथा नहीं,
वो धरती है जिसने सभ्यता की पहली साँसे ली थीं।
मैं आज भी हूँ,
अपने खंडहरों के पीछे,
अपने कण-कण में इतिहास समेटे,
इस उम्मीद में कि कोई फिर मुझे पढ़ेगा…
समझेगा…
और कहेगा —
“भारत की आत्मा, यहीं से बोलती है।”

“मैं वो लिपि हूँ जो पढ़ी नहीं जा सकी,
मैं वो भाव हूँ जो मिटाया नहीं जा सका। ”

ऋषभ तिवारी (लब्ज़ के दो शब्द)

The Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *