दरख़्त

दरख़्त जैसे रिश्ते थे, हर शाख़ में बहार,
अब हर सदा में तन्हाई है, दिल में है गुबार।

एक दरख़्त की छाँव में, मिलते थे सब सबा,
अब हर कोई जुदा है, बस हैसियत का ख़ुमार।

जड़ें थीं जो मोहब्बत की, अब सूखती सी लगें,
रिश्तों की नमी ग़ायब, दिल भी है ख़स्ता-ए-कार।

माँ-बाप की दुआओं में, बरकतों का हुनर था,
अब फ़क़त अल्फ़ाज़ बचे हैं, ना रही वो रौशन-फ़ुशार।

भाई-बहन की ठिठोली, और चाय पर गुफ़्तगू,
वो बीते लम्हें जैसे हो, फ़साना-ए-गुज़ार।

हर घर था इक बाग़ सा, रिश्ते थे रंग-बिरंगे,
अब सिर्फ़ दीवारें हैं, और सन्नाटे का इज़हार।

“नियाज़” ने ये तसव्वुर किया, दिल से इक सवाल,
क्या फिर से दरख़्त उगेंगे, रिश्तों के बहार?

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