मझधार में दरख़्त

“मेरी आवाज़ , मेरी पहेचान ”

शीर्षक: मझधार में दरख़्त

कभी थी मैं — एक दरख़्त साया-दिल,
जिसकी शाख़ों में ख़्वाब झूला करते थे,
जहाँ हर पत्ता एक दुआ की सदा था,
हर तना — वक़्त का खामोश गवाह था।

ज़मीं की गोद में मैंने रिश्तों की जड़ें बोई थीं,
बच्चों की हँसी से हर सुबह नहाई थी,
और मिट्टी की ख़ुशबू मेरी रूह में उतरती थी।

परिंदे मेरे कांधों पर उम्मीदें छोड़ जाते,
और हवा —
मेरे जिस्म से लिपट कर सुकून की ग़ज़लें गाती।

फिर इक रोज़… तामीर की हवस में डूबे लोग
लोहे के दाँतों के साथ आए,
और मेरी सांसों को बेनवा कर गए।

अब मैं कोई दरख़्त नहीं,
मैं नींव हूँ — किसी बेजान इमारत की,
जिसकी दीवारों में ना धड़कन है,
ना मोहब्बत की महक।

मेरे अंदर अब भी एक चीख़ है,
जो ख़ामोशी में गूंजती है…
मगर इंसान अब ख़ामोशी नहीं सुनता,
ना खामोशी का एहसास सुनता।

जब बारिश आती है और मिट्टी भीगती है —
मेरे लहू की ख़ुशबू अब भी उस ज़मीं में बहती है,
पर कोई पहचानता नहीं।

मैं अब भी खडी हूँ — मझधार में एक दरख़्त की तरह,
जिसकी जड़ें हिल चुकी हैं,
और शाख़ें सवाल बनकर आसमां से टकरा रही हैं।

मैं ही थी वो जिसने आँधियाँ सहीं,
रिश्तों को छाँव दी,
मगर अब… मैं भी दरख़्त नहीं —
एक तन्हा उम्मीद हूँ, जिसे किनारा कभी न मिला।

मिट्टी में आज भी मेरी रूह काँपती है,
हर नन्हा पौधा मेरी याद से उगता है —
मगर वक़्त की तेज़ रफ़्तार
हर हसरत को कुचल देती है।

कभी कोई बच्चा किसी पेड़ से लिपटकर
‘माँ’ कहता है —
तो मेरे दिल के अंदर
एक पुरानी बारिश ज़िंदा हो जाती है।

मैंने हवाओं को घर दिए,
बारिशों को पनाह दी,
मगर अब उन्हीं हवाओं ने
मुझे तन्हा छोड़ दिया।

हर शाम जब सूरज ढलता है,
तो मेरी रगों में एक थकान बहती है —
जैसे सदियों का सफ़र
किसी बेजुबान लाश पर ठहर गया हो।

अब मैं खामोश हूँ — मगर मौजूद,
मैं मिटाई गई हूँ…
मैं एक निशान हूँ
उस मोहब्बत का —
जो इंसान ने,
कभी खुद से भी करना छोड़ दिया।
रचनाकार✍️adv. काव्या मझधार
१५/४/२०२५

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