कभी की जिन दीवारों से बात,
आज वो भी लगती हैं अनजान।
जहाँ हँसी गूंजा करती थी,
अब बस खामोशी का है सामान।
क्या आज मुझसे है सभी परेशान,
“अजनबी अपने ही घर में”
क्यों में बन गई एक अजनबी मेहमान?
अपनों की मुस्कानें जो कभी खिलती थीं,
अब वो फीकी और बेमन सी लगती हैं।
जिन्होंने बोलना सिखाया मुझे,
आज मेरी आवाज़ से क्यों दिलों में चिंगारी सुलगती है?
घर के दरवाज़े आज भी खुले है
पर दिलों के दरवाजों पे ताले लगे है।
मैं अपने ही घर में खोई हुई हूँ,
जहाँ हर कोना अनजान सा लगता है।
अपने ही लोगों के बीच अजनबी हूँ मैं,
खुद का बाजूद एक मेहमान स लगता है।
दरों-दीवार तो सब वही है।
पर उनमें अब वो गर्मी नहीं।
आँगन में बैठी जो माँ थी,
अब खिड़की से तकती है चुप।
बापू की वो अख़बार वाली बात,
अब बस बन गई है एक स्वरुप।
कभी जो घर था सपनों सा,
अब परछाइयों का मेला है।
हर चेहरे पर परदा है,
हर रिश्ते में कुछ झेला है।
रिश्तों की दीवारें गिर गई हैं,
मोहब्बत के रंग उतर गए हैं।
अब तो सब अजनबी बन के
अपने ही घर में बिखर गए हैं।
भाई की हँसी, बहन की चिठ्ठी,
सब कुछ तो है… पर उस वक्त जैसी नहीं।
मैं हूँ यहाँ, वो है यहां मगर मोहब्बत ही वैसी नहीं।
“अजनबी अपने ही घर में”, क्यों सब से अंजान हु?
जहां पली बढी मैं, अब वही में मेहमान हु!