अजनबी अपने ही घर में

बैठे कहीं कोने में , सिमटकर अपने ही मन में,
न बोला गया कुछ भी, है कैसी शांति जीवन में,
चल रहा है न जाने क्या नहीं अन्दर,
मगर फिर क्यों अजनबी हैं अपने ही घर में ….?

सोचना है पड़ रहा कुछ कहने से पहले ,
वो मां – बाप हैं फिर भी बैठे साथ तुम कब थे …
झिझक कैसी है अंतस में कभी तो सोचना ये भी ,
रहोगे कब तलक आखिर अजनबी अपने ही घर में…?

बड़ा खेले हैं बचपन में, खेल वो कितने प्यारे थे,
ये भाई है वो दीदी हैं, ये रिश्ते कितने प्यारे थे ,
लगी है नज़र ये किसकी कि सब ख़ामोश हो गए ,
बने बैठे हैं देखो तो अजनबी अपने ही घर में…।

पड़ी थी खाट जो बाहर, जहां कहानी सुनते थे,
है कमरा आज भी उनका , जहां दादा – दादी रहते हैं,
उम्र की इस दहलीज पर , बस अब चुप – चाप रहते हैं ,
हो चुके ये भी तो कैसे अजनबी अपने ही घर में…।

रहते हैं एक ही घर में ,कमरा भी साझा करते हैं,
वो गाड़ी के दो पहिए जिन्हें हमसफ़र कहते हैं,
हो रही है डगमग सी चालें अब कहां वो साथ चलते हैं,
दुनिया की नज़रों में साथी और हैं अजनबी अपने ही घर में.।

कहां खोया है अपनों को , कहां रिश्तों में उलझन है,
कहां गुम हैं सारी खुशियां, कहां इस दिल में धड़कन है,
कोई तो रास्ता होगा , कोई तो रहनुमा होगा ,
न रहना पड़ेगा फिर अजनबी अपने ही घर में …।।

✍️ ✍️ काजल सिंह “ज़िंदगी”

प्रतियोगिता – बोलती कलम

क्वालीफायर राउंड

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