प्रतियोगिता -बोलती कलम
विषय – ” अजनबी अपने ही घर में ”
कहने को तो यहां सभी है अपने ,
साथ-साथ तो हमारे चलते हैं ,
मगर न जाने क्यों कभी कभार ,
हमें अपना बनकर ही छलते हैं ।
दिखावा इतना है अपनेपन का कि ,
हमें गर्व हो उठता यह अपना है ,
फिर धीरे-धीरे दिल का बुझता दीया ,
यह कहता सच नहीं कोई सपना है ।।
जब बदला रंग जीवन ने तो ,
लगा ज़िंदगी खुशियों का अंगना है ,
सारा भरम वक्त ने तोड़ा ,
फिर क्या अपनों में अब दम घुटना है ।।
दिया हमने हरदम सब कुछ अपना ,
मगर मेरा सपना बना रहा बस सपना है ,
मानती हूं संवेदना की कमी नहीं ,
फिर इतनी निष्ठुरता क्यों रखना है ??
खुशियां छलकने लगती आंखों में ,
नज़रें अपनों की लगने लगती है ,
ख़ोज होने लगता हर बातों का ,
जब ज़िंदगी हमारी निकल पड़ती है ।।
गवारा नहीं हर काम की निपुणता ,
हर निपुणता में अपूर्णता निकलती है ,
दंग तो हम रह जाते मगर खौफ नहीं ,
यह मेरी नहीं अपनों की गलती है ।।
ना रुकना यह जानती मुसाफिर ,
कितना भी अपने रास्ते में आड़े आते हैं ,
दुख बस इतना ही होता कि ,
‘अजनबी अपने ही घर में’ हम क्यूं रह जाते हैं ?
सुमन लता ✍️
अल्फाज़ -e-सुकून