मैं समय से शिकवा नहीं करता
—प्रशांत कुमार शाह
जो किस्मत में है, वो कहाँ जाएगा,
वक़्त आने पर ख़ुद चलकर आएगा।
अब किसी बात का मलाल नहीं,
इसलिए मेरा कभी बुरा हाल नहीं।
मेहनत करता हूँ, फल की चिंता नहीं,
जो ना मिले, उस पर कोई हिंसा नहीं।
मैं समय से शिकवा नहीं करता,
विपदाओं से कभी भी नहीं डरता।
सब जानते हैं, मेरी नीति क्या है,
हौसलों के आगे अब बाधा क्या है।
शिकवे-शिकायतें कायरों का काम हैं,
इसीलिए तो वो बस जलते आम हैं।
नदी की तरह हूँ—रास्ता बना लूंगा,
जो भी अड़चन हो, उसे मिटा दूंगा।
मुझे नहीं मालूम दुनियादारी क्या है,
ख़ुद से बढ़कर कोई समझदारी क्या है?
वक़्त को ही ज़िंदगी समझता हूँ,
शायद इसीलिए तंज़ में लिखता हूँ।
मेरी लेखनी भी एक वरदान है,
इसमें मेरी साँसें, मेरा जान है।
ख़ैर, ये सारे ख़्याल मेरे अपने हैं,
इस ज़िंदगी में अभी कुछ सपने हैं।
वक़्त आने पर वो भी पूरे होंगे,
बस मुझको अपने कर्म करने होंगे।
देख लूंगा हर किसी को, गर ज़रूरत हुई,
अभी शांत हूँ, साथ में मजबूरी जुड़ी।
मैं समय से शिकवा नहीं करता कभी,
मेरे शब्द तलवार, मेरी कलम छुरी।
बस यही दास्तान है जो मैंने लिखा,
इस उम्र में मैंने हर चेहरा परखा।
‘शाह’ हूँ मैं, अपनी दुनिया का सच है,
शायद इसलिए अब तक मैं बचा हूँ।
राउंड वन
बोलती कलम
अल्फ़ाज़ ए सुकून