एक रणगाथा _ ऑपरेशन सिंदूर

✍️रचनाकार:adv. काव्य मझधार
वीर रस काव्य: ऑपरेशन सिंदूर
— एक रणगाथा

जब क़दम बढ़े थे सिंहों के, बिजली काँप उठी थी,
सीमा पर फिर भारत माता की जय गूंज उठी थी।
धरती कांपी, गगन हिला, रणचंडी मुस्कुराई
सिंदूर चढ़ा जब मस्तक पर, दुश्मन लहूलुहान छाई।

ना था डर बम-बारूदों का, ना परवाह मौत की,
हर सिपाही चल पड़ा लिए सौगंध सिरमौर की।
जहाँ शत्रु ने आँख उठाई, वहीं भस्म कर डाला,
तिरंगे के हर रंग ने फिर से इतिहास संभाला।

गूंज उठी भारत माता की जय जब टैंक उठे मैदानों में,
काँपे दुश्मन अपने ही खेमे, अपने ही ऐलानों में।
पाक सोचता था हम झुक जाएँगे, थम जाएँगे,
पर देख लिया—हम रण के देव, न कम आएँगे।

रणभेरी के स्वर में जोश था, स्वाभिमान की धार थी,
हर सैनिक की आँखों में बस माँ के चरणों की पुकार थी।
हर गोली जब चलती थी, प्रतिशोध का ज्वार लिए,
भारत के हर वीर ने युद्धभूमि में प्राण दिए।

और जब लहू से भीग गई थी धरती की चूनर,
तब विजय लिखी गई थी ऑपरेशन सिंदूर पर।
पाकिस्तान झुका, टूटा, धूल चाटता रह गया,
हिंदुस्तान सर ऊँचा किए, फिर विश्व-विजयी बन गया।

आज भी जब सीमा पर सूरज उगता लाल रंग में,
कहता है — ये रंग नहीं, ये लहू है बलिदान के संग में।
मझधार में भी जिसने पतवार थामी थी शान से,
वो नाम है भारतवर्ष — जो अडिग है अपने मान से।
८/५/२०२५
✍️रचनाकार:adv. काव्य मझधार
वीर रस काव्य: ऑपरेशन सिंदूर
— एक रणगाथा

जब क़दम बढ़े थे सिंहों के, बिजली काँप उठी थी,
सीमा पर फिर भारत माता की जय गूंज उठी थी।
धरती कांपी, गगन हिला, रणचंडी मुस्कुराई
सिंदूर चढ़ा जब मस्तक पर, दुश्मन लहूलुहान छाई।

ना था डर बम-बारूदों का, ना परवाह मौत की,
हर सिपाही चल पड़ा लिए सौगंध सिरमौर की।
जहाँ शत्रु ने आँख उठाई, वहीं भस्म कर डाला,
तिरंगे के हर रंग ने फिर से इतिहास संभाला।

गूंज उठी भारत माता की जय जब टैंक उठे मैदानों में,
काँपे दुश्मन अपने ही खेमे, अपने ही ऐलानों में।
पाक सोचता था हम झुक जाएँगे, थम जाएँगे,
पर देख लिया—हम रण के देव, न कम आएँगे।

रणभेरी के स्वर में जोश था, स्वाभिमान की धार थी,
हर सैनिक की आँखों में बस माँ के चरणों की पुकार थी।
हर गोली जब चलती थी, प्रतिशोध का ज्वार लिए,
भारत के हर वीर ने युद्धभूमि में प्राण दिए।

और जब लहू से भीग गई थी धरती की चूनर,
तब विजय लिखी गई थी ऑपरेशन सिंदूर पर।
पाकिस्तान झुका, टूटा, धूल चाटता रह गया,
हिंदुस्तान सर ऊँचा किए, फिर विश्व-विजयी बन गया।

आज भी जब सीमा पर सूरज उगता लाल रंग में,
कहता है — ये रंग नहीं, ये लहू है बलिदान के संग में।
मझधार में भी जिसने पतवार थामी थी शान से,
वो नाम है भारतवर्ष — जो अडिग है अपने मान से।
८/५/२०२५
✍️रचनाकार:adv. काव्य मझधार
वीर रस काव्य: ऑपरेशन सिंदूर
         — एक रणगाथा

जब क़दम बढ़े थे सिंहों के, बिजली काँप उठी थी,
सीमा पर फिर भारत माता की जय गूंज उठी थी।
धरती कांपी, गगन हिला, रणचंडी मुस्कुराई
सिंदूर चढ़ा जब मस्तक पर, दुश्मन लहूलुहान छाई।

ना था डर बम-बारूदों का, ना परवाह मौत की,
हर सिपाही चल पड़ा लिए सौगंध सिरमौर की।
जहाँ शत्रु ने आँख उठाई, वहीं भस्म कर डाला,
तिरंगे के हर रंग ने फिर से इतिहास संभाला।

गूंज उठी भारत माता की जय जब टैंक उठे मैदानों में,
काँपे दुश्मन अपने ही खेमे, अपने ही ऐलानों में।
पाक सोचता था हम झुक जाएँगे, थम जाएँगे,
पर देख लिया—हम रण के देव, न कम आएँगे।

रणभेरी के स्वर में जोश था, स्वाभिमान की धार थी,
हर सैनिक की आँखों में बस माँ के चरणों की पुकार थी।
हर गोली जब चलती थी, प्रतिशोध का ज्वार लिए,
भारत के हर वीर ने युद्धभूमि में प्राण दिए।

और जब लहू से भीग गई थी धरती की चूनर,
तब विजय लिखी गई थी ऑपरेशन सिंदूर पर।
पाकिस्तान झुका, टूटा, धूल चाटता रह गया,
हिंदुस्तान सर ऊँचा किए, फिर विश्व-विजयी बन गया।

आज भी जब सीमा पर सूरज उगता लाल रंग में,
कहता है — ये रंग नहीं, ये लहू है बलिदान के संग में।
मझधार में भी जिसने पतवार थामी थी शान से,
वो नाम है भारतवर्ष — जो अडिग है अपने मान से।
८/५/२०२५

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