धीरे धीरे विनाश की ओर , हम कदम बढ़ा रहे हैं,
खेलकर प्रकृति से, मौत के और करीब जा रहे हैं,
काट दिए सब वन और जंगल, पाट दिए नदी नाले,
क्योंकर अपनी ही करनी पर , हम मुस्कुरा रहे हैं,
दूषित करते हवा जल को, क्या कहेंगे आने वाले कल को,
क्यों आने वाली पीढ़ी को हम, मौत दे के जा रहे हैं,
माँगती दया की भीख , माँ धरित्री हमसे पल पल ,
ममतामयी माँ की कोख पर , क्यूँ वार किए जा रहे हैं,
जलवायु परिवर्तन, जिम्मेदार कौन , इस प्रश्न पर हम मौन हैं,
हरी भरी धरती का हम , क्यों विनाश किए जा रहे हैं,
चला रहे हैं नित्य कुल्हाड़ा, धरती मां की कोख पर ,
इसी का खामियाजा हम, असाध्य रोगों से उठा रहे हैं,
कितने दिन जी पायेंगें ,इन दूषित साँसो के साथ हम,
वो दे रही जीवन हमें ,और हम चोट पे चोट किये जा रहे हैं,
ना जल ना वायु , अब कुछ भी स्वच्छ नहीं रहा,
तकनीक के सहारे हम, ये जिंदगी बिता रहे हैं,
काट कर जंगल को , बेघर कर दिया कितने जीवो को ,
और इस कुकृत्य को हम, विकास बता रहे हैं,
लंबी कहां होती है उम्र , कृत्रिम सांसों की,
मौत की आहट है ये , हम समझ क्यों नहीं पा रहे हैं,
पूनम आत्रेय
राउंड – 3
बोलती कलम
अल्फाज़-e-सुकून