*नेता बदलते हैं, नीयत नहीं*
आज़ाद भारत में रहते हैं हम,
ख़ुद को आज़ाद कहते हैं हम।
पर विकास का पैमाना क्या है?
नई युग और नया ज़माना क्या है?
सदियों पुरानी इमारत ज़िंदा है,
और आज के मकान शर्मिंदा हैं।
मेडिकल का हाल वही पुराना है,
बुखार के अलावा क्या जाना है?
स्कूल, कॉलेज तो हैं पर मरे हैं,
नेता अपनी जेब के लिए खड़े हैं।
क्या है नेतागिरी, समझ नहीं आया,
राजनीति से बताओ भारत क्या पाया?
सदियों पुराना इतिहास है हमारा,
शल्य चिकित्सा प्रमाण है हमारा।
पर ये सुनने में अच्छा लगता है,
हकीकत में कहाँ कुछ मिलता है?
देश आज़ाद हुए कई साल हुए,
और हम पैसे के लिए बेहाल हुए।
युद्ध नीति भी अब अपनी नहीं है,
नेताओं की कथनी है, करनी नहीं है।
देश में क्या ही तकनीक का विकास है?
क्या ज़रूरत है देश को किसे आभास है।
गिर जाते हैं पुल कुछ थोड़े सालों में,
और नेता विकास देखते हैं बस नालों में।
पहले राजा भले अपनी करते थे,
पर अपने लोगों की बात सुनते थे।
आज के नेता तो खूब घूमते हैं,
प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए बाग में टहलते हैं।
ये दुर्दशा किसने किया सवाल है,
राजनैतिक दल देश का काल है।
प्रोटोकॉल का होना बस ज़रूरी है,
और नेताओं का धरातल से दूरी है।
कुछ शायर थे पहले जो बोलते थे,
नेताओं के नब्ज़ को टटोलते थे।
पर ये दौर नया है, सब कुछ बदल गया,
अच्छे कवि भी नेतागिरी में ढल गया।
सबसे पुरानी पार्टी का विज़न था,
इस वाले का तो जीत ही रीजन था।
सूट-बूट की अभी सरकार है , सच है,
पर देश की जनता भिखार है , सच है।
ख़ैर, लिख दिया आज तो अपने संदेश,
इसके बाद मैं चला तो कमाने विदेश।
*”शाह”* आएगा यहाँ जब रोज़गार होगा,
जेब में पैसा और अपनों का प्यार होगा।
स्वरचित:
*प्रशांत कुमार शाह*
सेमीफाइनल राउंड