नेता बदलते हैं, नीयत नहीं
हर पाँच साल में भीड़ जुटी,
फिर वही वादों की पोटली खुली।
चेहरे बदले, चाल वही थी,
नीति-नीति कह, राजनीति चली।
हाथ जोड़े, झूठे वादे,
भाषणों में फिर उड़ते बादे।
“हम लाएंगे परिवर्तन!” का नारा,
पर फिर वही पुराना किनारा।
कभी धर्म की बात चली,
कभी जाति की चाल चली।
कभी आरक्षण, कभी सुरक्षा,
सपनों में जनता की दहशत भरी।
नेता बदले, पर नजरिया वही,
भाषा बदली, मगर मानसिकता वही।
सड़क, शिक्षा, या रोज़गार,
हर मोर्चे पर खिंचती दरार।
जनता बस मंच की सीढ़ी है,
और कुर्सी तक की सीधी सी लकीर है।
एक बार वोट मिला, फिर भूल गए,
गाँव, ग़रीब, किसान — सब धूल गए।
हर बार उम्मीद से भरे,
हम फिर लाइन में खड़े।
पर नीयतों का खेल ऐसा,
सच कहूँ तो सब लगे जैसे वैसा।
न कोई शर्म, न कोई हिसाब,
बस कुर्सी की प्यास बेहिसाब।
कभी नकल, कभी ढकोसले,
काग़ज़ों में ही पूरे हो लक्ष्य के फोसलें।
मैं पूछता हूँ—
क्या बदलेगा कभी सच्चाई का सूरज?
या फिर अंधेरों में ही चमकते रहेंगे,
ये सत्ता के झूठे मूरत?
— ऋषभ तिवारी (लब्ज़ के दो शब्द)