प्रतियोगिता – काव्य के आदर्श
द्वितीय चरण
विषय – वो तोड़ती पत्थर
वो तोड़ती हैं पत्थर साथ कलेजा भी जलाती हैं
एक हाथ मारती चोट एक से स्तनपान कराती हैं
स्त्री भी कितनी मजबूती से बनी होती हैं शिवोम
स्वावलंबी खुद बन वही बच्चों को भी सिखाती हैं
खड़ी दुपहरी में चमकाती हैं वो मेहनत का पसीना
परिस्थितियों के सामने उसने कभी नहीं चुना रोना
जीत जाती हैं खुद से रीति रिवाओं में भी ढ़ल जाती
जो पत्थर को राख करती पुरूष कहते उन्हें घिनौना
वो पत्थर भी उसके हाथों टूट,टूट के भी बन जाता हैं
जो इतने करीब से नारी के इस रूप को पहचानता हैं
पत्थर पर जब गिरते हैं आंसु वो पीड़ा हम क्या जाने
गिरते आंसुओं की गर्मी एक पत्थर ही समझ पाता हैं
पुरुषों के पौरूष पर बहुत कुछ लिखा और पढ़ा भी जाता
कारखाने की तपती भट्टी में औरत का चेहरा नहीं दिखता
उसे बस मज़बूरी का नाम दिया कुछ समाज के ठेकेदारों ने
क्यों उस मज़बूरी के पीछे खड़ा पुरुष भी बेनकाब नहीं होता
वो तोड़ती पत्थर साथ ही कर्तव्य पथ पर चलना भी सिखाती
फिर भी हम पुरुषों को खुद पर ही जरा सी लाज ना हैं आती
कंधे से कंधा मिला चलने को बस भाषणों, मंचों पर ही कहते
असलियत में नारी अबला, बदचलन ,कमजोर ही नज़र आती
✍️✍️ शिवोम उपाध्याय