*”वो तोड़ती पत्थर”*
(*एक विधवा की स्थिति*)
देखा है मैंने आज एक विधवा को,
पेट की खातिर पहाड़ तोड़ते हुए।
गोद में बच्चा, हाथों में कुदाल,
घर-परिवार का इससे क्या बुरा हाल?
धूप भी तेज, बारिश मूसलधार,
गरीबी से बढ़कर नहीं कोई धिक्कार।
पेट और बच्चों के लिए करना है काम,
विधवा है तो क्या, ज़िंदगी नहीं आसान।
कभी बच्चे को स्तनपान कराती,
तो कभी पेड़ की छांव में सुलाती।
सुहाग गया, पर ममता अब भी ज़िंदा है,
लेकिन समाज की मर्यादा एक फंदा है।
कभी सर पर पल्लू सलीके से रखती,
तो कभी पसीने को हथेली से पोंछती।
मजदूरों के झुंड में वो एक विधवा अकेली,
पेट की आग बुझाने को काम पे निकली।
वो तोड़ती पत्थर है, लोग ताकते हैं चुप,
महिला को काम करता देख, हैं सब सुस्त।
“शाह” कुछ न कर सका, बस देखता रहा,
चुपचाप लौट गया ,अपनी बेबसी को सहा।
*_प्रशांत कुमार शाह*
द्वितीय चरण