विषय – ‘ वो तोड़ती पत्थर ‘
वो तोड़ती पत्थर, मग़र खुद न टूटी,
हर चोट सहती मग़र वो नहीं रूठी,
छांव की आस मे धूप सी तपती,
घर की रोटी खातिर जंग है रोज़ करती।
हाथों मे छाले फिर भी शिकवा नहीं करती,
सन्नाटो से रोज़ वो एक जंग सी लड़ती,
ना पूछे कोई, कौन है, कहां से आई?
बस झुकी नजरों मे गुम हो जाती हर परछाई।
वो चुप है क्योंकि रोना भी अब फ़ुर्सत नहीं,
सुनना चाहे कौन जब बोलने की इजाजत नहीं,
सड़क किनारे गुमनाम सी वो कथा बुनती है,
हर हथौड़े के संग अपने वजूद को चुनती है।
रोज़ गढ़ती है इमारत, पर खुद बेघर रहती है,
दुनिया की नज़रों में जीती नहीं, बस सहती है,
बस चाही दो वक़्त की रोटी,थोड़ी इज़्ज़त और विश्वास,
उसकी हर कोशिश को बनाया मजबूरी का दास।
इतिहास में नाम, ना किस्सों में जगह पाई,
बस चुपचाप जिंदगी को हर दिन चट्टानों पे ढोई,
‘सहर’ की कलम अब खामोश नहीं रहने वाली,
जिसने देखी है चुप्पी,अब वो आवाज़ बनके निकले वाली।
स्वीटी कुमारी ‘सहर’
द्वितीय चरण