*ख्वाहिशें*
कभी ये रूठे , तो कभी मनाने आती है,
दूर जाकर तो कमी महसूस कराती है।
ये ख़्वाहिशें भी अजीब सी मलिका हैं,
दिल के दरबार में कोई तानाशाहिका हैं।
कभी ख्वाबों को ये सोने नहीं देती,
और कभी उम्मीदों में रंग भर देती।
साथ हो ये तो मौसम भी मुस्कुराता है,
ना हो तो हर रंग फीका पड़ जाता है।
ये ही पैगाम है, ये ही है इल्ज़ाम,
सुख-दुख का है यही दूसरा नाम।
कभी जला कर, तो कभी सजा कर,
ये चलती है हर मोड़ पर आज़मा कर।
इसकी बाहों में जीवन बहारों सा है,
बिना इसके हर लम्हा वीरानों सा है।
*शाह* कहता है ,इसका राज ग़ज़ब है,
ख़्वाहिशें ही जीवन का असल अदब है !!
स्वरचित:
*प्रशांत कुमार शाह*
फ़ाइनल