प्रतियोगिता ‘शब्दों की अमृतवाणी’
“गाँव और बचपन की मासूमियत”
गाँव की गलियों में माटी की खुशबू,
साँझ ढले चौपाल पे होती थी गुफ़्तगू,
पगडंडियों पर खेलते थे नंगे पाँव,
दिल में सदा बसता है अपना गाँव।
दोस्तों संग खेलें गिल्ली-डंडा,
कभी लुकाछिपी,कभी खो-खो खेल,
हंसी के ठहाकों से गूंजता था आँगन,
वो दिन थे अच्छे,न थी कोई उलझन।
मिट्टी के खिलौनों में सपने सजाते,
पेड़ की टहनियों पर झूले झुलाते,
गुड़ और रेवड़ी की मिठास थी संग,
हर पल में बसता था अपनापन का रंग।
रात को छत पर चारपाई बिछाते,
दादू-दादी संग कहानी थे सुनते,
तारों के नीचे सपनों में खो जाते,
हवा के झोंकों में सुकून हम चुनते।
अब न वो समय है, न ही वैसी गलियाँ,
फिर भी दिल में बसी हैं पुरानी कहानियाँ,
हर हँसी, हर खेल की मिठास याद आती,
हर पल में बचपन की खुशबू बसती।
अब जब सोचूँ तो आँखें नम हो जाती हैं,
उन लम्हों की तासीर दिल को तड़पाती है,
वो बचपन था,वो क़रार था,वो सुकून-ए-ज़िंदगी,
अब तो बस यादें हैं और ख़्वाबों की तन्हाई।
✍️ स्वीटी कुमारी ‘सहर’
सीरीज 1
राउंड 1