कभी अकेले बैठकर बचपन की यादों में जाता हूं,
कैसा था मेरा गांव और बचपन आपको बताता हूं।
गांव में वो छोटी सी उम्र में निर्वस्त्र दिन भर घूमना,
मुफलिसी में मस्त मगन रहना आपको सिखाता हूं।
सुबह सुबह उठते ही बच्चों की टोली इकठ्ठा करके,
आम के बाग में जाना आम तोड़ना भूल नहीं पाता हूं।
धूल में कबड्डी खेलना और पेड़ों पर उछल कूद करना,
कितनी सस्ती होतीं खुशियों गांवों में तुम्हे दिखाता हूं।
गांव के प्राइमरी स्कूल से बुखार का बहाना बनाकर,
कुश्ती और कबड्डी खेलने जाना कहां भूल पाता हूं?
तुम्हारे स्विमिंग पूल जैसी महंगाई नहीं हमारे गांवों में,
भैंस चराते हुए पोखरों में नहा के घर जाना बताता हूं।
रात को पूरे परिवार का छत पर दरी बिछाकर लेटना,
ख्वाहिशों भरी आंखों से तारों की बारात दिखाता हूं।
खेतों की पगडंडियों पर दौड़ कर पापा के पास जाना,
खेतों में काम करने का अपना शौक भी दर्शाता हूं।
आज मां पापा की सीख दिल को ठेस पहुंचाती है,
वो पापा के डर से मां की गोद में छिपना बताता हूं।
कड़वाहट से भरे शहरों में तो अब दम घुटता है मेरा,
गांव में रिश्तों की मिठास कलम से लिख जाता हूं।
एक वो ज़माना था जब चांद भी मामा हुआ करता था,
अब तो मैं अपने *यारा* को ही अपना चांद बताता हूं।
गांव में न मिलने वाली हर चीज पाई मैंने शहर में *राव*,
मग़र इक सुकून आज भी शहर में ढूंढता रह जाता हूं।
✍️ ____ मयंक “राव”