कविता प्रतियोगिता: शब्दों की अमृतवाणी
शीर्षक: गाँव के बचपन की यादें
रचयिता: सुनील मौर्या
प्रस्तावना (Intro)
“गाँव सिर्फ़ एक जगह नहीं होता, वह हमारी जड़ों की खुशबू, रिश्तों की ऊष्मा और बचपन की मासूमियत का आँगन होता है। आज मैं आपको उन्हीं सुनहरे दिनों में ले चलती हूँ, जहाँ यादें अब भी साँस लेती हैं…”
गाँव के बचपन की यादें
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गर्मियों की छुट्टियों में होता, नाना-नानी का आँगन,
तो कभी दादा-दादी के संग कटता था हमारा सावन।
गिल्ली-डंडे की गूँज, मिट्टी की वो उड़ती खुशबू,
आइस-पाइस, घर-घर, के खेल में मज़ा आता खूब।
कंचों की चमक में दिखते थे हम सब हंसते,
छोटे-छोटे खेल में भी हम सपनों को थे गढ़ते।
कभी बिजली आती, तो कभी अँधेरा छा जाता,
लालटेन का उजियारा सबके दिलों को लुभाता।
रात को खुली छत पर सोते हुए हम तारे गिनते,
पापा झलते हुए पंखा, हमसे मनोहर बातें करते।
दोस्तों के साथ, कुत्तों को, गलियों में दौड़ाते,
खेलते-कूदते, सुबह से कब शाम हो जाती।
ना मोबाइल था, ना ही कहीं, टीवी का रंग,
दोस्तों संग मस्ती में जीवन होता था ख़ुश रंग।
साइकिल पे बिठाकर ले जाते गाँव के मेले में,
खुशियाँ कितनी मिलतीं देख वहाँ के खेले में।
वो बचपन की यादें आज भी मन भिगो जाएँ,
गाँव का हर लम्हा, फिर से जीने को बुलाएँ…
सुनील मौर्या