सोच और प्रतिष्ठा
सत्तर-अस्सी बरस का बूढ़ा,
थका हुआ शरीर, काँपते हुए हाथ,
फिर भी मेहनत करता है रोज़,
कि परिवार का चूल्हा बुझ न पाए,
पेट की आग शांत हो जाए।
वहीं कुछ जवान, हड्डियाँ मज़बूत,
साँसों में उमंग, पर आदत है सहारे की,
दूसरों के कंधों पर जीते हैं
और कहते हैं – “ज़िंदगी बड़ी कठिन है।”
कितनी विडंबना है ये,
कि कोई लँगड़ा है, कोई अपाहिज,
फिर भी बिना शिकायत के
दिन-रात अपना कर्म निभाता है।
और कुछ ऐसे भी हैं,
जिनकी शिकायतें कभी ख़त्म नहीं होतीं,
हर सुख में भी ग़म खोजते हैं,
हर मौक़े में भी ग़लती ढूँढते हैं।
इंसान अमीर या ग़रीब
पैसे से नहीं, सोच और कर्म से बनता है।
यदि सोच उजली हो,
तो कठिनाई में भी रास्ते खिल उठते हैं,
और एक दिन वही इंसान
दूसरों का सहारा बन जाता है।
सोच छोटी हो तो
महल में भी तन्हाई लगती है,
सोच बड़ी हो तो
झोपड़ी भी स्वर्ग बन जाती है।
इसलिए मैंने जाना है—
प्रतिष्ठा वंश से नहीं, कर्म से बनती है,
और इंसान वही है सच्चा,
जो खुद सँभलकर दूसरों को भी सँभाल लेता है।
— ऋषभ तिवारी (लब्ज़ के दो शब्द)